Monday 29 May 2017

☉ "श्रुतपंचमी महापर्व" ☉... *श्रुत पंचमी क्यों मनाते हैं इसका इतिहास अवश्य पढ़े* ... *✨षट्खण्डामग की रचना✨*


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"श्रुतपंचमी महापर्व" ☉


 ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी की शुभ तिथी को तीर्थंकर भगवान की वाणी लिपिबद्ध हुई थी।

      अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी से तो समस्त जीवों को कल्याण हेतु ज्ञान प्राप्त हुआ लेकिन बाद में काल के प्रभाव के कारण, मनुष्य की स्मरण शक्ति कम होने लगी अतः हमारे आचार्यों ने विचार किया कि भगवान की साक्षात दिव्यध्वनि के अभाव में भगवान द्वारा प्रतिपादित जीव के कल्याण हेतु ज्ञान क्षय को प्राप्त हो जायेगा इसीलिए उसे लिपिबद्ध करना चाहिए।

       ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी की शुभ तिथी को पूज्य आचार्य पुष्पदंत व भूतबली महाराज द्वारा *श्री षटखंडाग़म* ग्रंथराज का लेखन कार्य पूर्ण हुआ था।

      वर्तमान में हम सभी जो भी धर्म के स्वरूप को जान पा रहे हैं वह तीर्थंकर भगवान् की वाणी ग्रंथों मे लिपिबद्ध है, उसको चारित्र रूप धारण करने वाले गुरुओं के माध्यम से प्राप्त कर रहे हैं। आगम ग्रंथ जिनमें भगवान की वाणी लिपि बद्ध है उनको माँ जिनवाणी की संज्ञा दी जाती है।

       माँ जिनवाणी की आराधना का यह पर्व हम सभी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है-

इस दिन अत्यंत भक्ति भाव के साथ माँ जिनवाणी की पूजन करना चाहिए तथा सभी ग्रन्थों को नए वस्त्र प्रदान करना चाहिए।

जिनवाणी आराधना के इस पर्व श्रुत पंचमी पर अनेकों स्थानों पर अत्यंत उल्लास के साथ माँ जिनवाणी की शोभा यात्रा निकाली जाती है।

इस पुनीत अवसर पर सामूहिक रूप से माँ जिनवाणी पूजन का आयोजन करना चाहिए।

जिनाल्य में अथवा अपने घर में उपस्थित सभी धार्मिक ग्रंथों को व्यवस्थित करना चाहिए। उन पर नए वस्त्र तथा कवर आदि चढ़ाकर उनकी वैय्यावृत्ति करना चाहिए।

इस अवसर पर पूर्व आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथ का अध्यन करना चाहिए। तथा संभव हो तो किसी एक ग्रंथ के अध्यन का संकल्प लेना चाहिए।

हमारे आचार्य हम सभी को समझाते हैं कि यह दुर्लभ मनुष्य जीवन पाकर भी आप माँ जिनवाणी का अमृत पान नहीं करोगे तो किस गति में जाकर करोगे?

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*श्रुत पंचमी क्यों मनाते हैं इसका इतिहास अवश्य पढ़े*

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*प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में, श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के पीछे एक इतिहास है, जो निम्नलिखित है*

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*श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र* के मुख से *श्री इन्द्रभूति (गौतम) गणधर* ने श्रुत को धारण किया। उनसे *सुधर्माचार्य* ने और उनसे *जम्बू* नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इनका काल ६२ वर्ष है। 

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पश्चात १०० वर्ष में 
*१ विष्णु* 
*२ नन्दिमित्र*
*३ अपराजित* 
*४ गोवर्धन*
*५ भद्रबाहु*
ये पांच आर्चाय पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए। 

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तदनंतर ग्यारह अंग और दश पूर्वों के वेत्ता ये ग्यारह आचार्य हुए- 
*१ विशाखाचार्य*
*२ प्रोष्ठिन* 
*३ क्षत्रिय*
*४ जय*
*५ नाग* 
*६ सिद्धार्थ* 
*७ धृतिसेन*
*८ विजय* 
*९ बुद्धिल* 
*१० गंगदेव*
*११ धर्म सेन*
इनका काल १८३ वर्ष है। 

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तत्पश्चात 
*१ नक्षत्र*
*२ जयपाल*
*३ पाण्डु*
*४ ध्रुवसेन* 
*५ कंस* 
ये पांच आर्चाय ग्यारह अंगों के धारक है। इनका काल २२० वर्ष है।

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तदनन्तर
*१ सुभद्र*
*२ यशोभद्र*
*३ यशोबाहु*
*४ लोहार्य*
ये चार आचार्य एकमात्र आचारंग के धारक हुए। इनका समय ११८ वर्ष है।

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इसके पश्चात अंग और पूर्ववेत्तओं की परम्परा समाप्त हो गई और सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। ये दूसरे अग्रायणी पूर्व के अंतर्गत चौथे महाकर्म प्रकृति प्राभृत के विशिष्ट ज्ञाता थे। श्रुतावतार की यह परम्परा धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार है। नन्दिसंघ की जो प्राकृत पट्टावली उपलब्ध है उसके अनुसार भी श्रुतावतार का यही क्रम है। केवल आचार्य के कुछ नामों में अंतर है, फिर भी मोटे तौर पर उपयुक्त कालगणना के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण से ६८३ वर्षों के व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए, ऐसा स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है। नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार धरसेनाचायार्य का काल वीर निर्वाण से ६१४ वर्ष पश्चात जान पड़ता है ।


*✨षट्खण्डामग की रचना✨*

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आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। जिस प्रकार दीपक से दीपक जलाने की परम्परा चालू रहती है उसी प्रकार आचार्य धरसेन तक भगवान महावीर की देशना आंशिक रूप में पूर्ववत धाराप्रवाह रूप में चली आ रही थी। आचार्य धरसेन काठियावाड में स्थित गिरिनगर 🔹गिरिनाम पर्वत🔹 की चन्द्र गुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गए और अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा तब उन्हें यह चिंता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का दिन प्रतिदिन ह्रास होता जाता है। इस समय मुझे जो कुछ श्रुतप्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं है, यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं दे सका तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जायेगा। उस समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय विराजमान था। श्री धरसेनाचार्य ने एक ब्रह्मचारी के हाथ वहां मुनियों के पास एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था-

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स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयन्त तटनिकट चन्द्रगुहा- 
वासाद धरसेनगणी वेणाकतट समुदितयतीन।। 
अभिवन्द्य कार्यमेवं निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम्। 
स्वल्प तस्मादस्मच्छुतस्य शास्त्र व्युच्छित्तिः।। 
न स्यात्तथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहण धारण समर्थों।
निशितप्रज्ञौ यूयं प्रसपयत

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स्वस्ति श्रीमान् ऊर्जयंत तट के निकट स्थित चन्द्रगुहावास से धरसेनाचार्य वेणाक तट पर स्थित मुनिसमूहों को वंदना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही अवशिष्ट रही है। इसलिए हमारे श्रुतज्ञानरूप शास्त्र का व्युच्छेद जिस प्रकार से न हो जावे उसी तरह से आप लोग तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करणे में समर्थ दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो

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मुनि संघ ने आचार्य धरसेन के श्रुतरक्षा सम्बंधी अभिप्राय को जानकर दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वे मुनि विद्याग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थे, अत्यंत विनयी तथा शीलवान थे। उनके देश, कुल और जाति शुद्ध थे और वे समस्त कलाओं में पारंगत थे। जब वे दो मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे तब यहाँ श्री धरसेनाचार्य ने ऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृष आकर उन्हें विनयपूर्वक वंदना कर रहे हैं। उस स्पप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनि विनयवान, एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। उनके मुंह से ‘जयउ सुयदेवदा’ ऐसा आशीर्वादात्मक वचन निकला। दूसरे दिन दोनों मुनिवर आ पहुंचे अैर विनयपूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वंदना की। दो दिन पश्चात श्री धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की। एक को अधिक अक्षरों वाला और दूसरे को हीन अक्षरों वाला विद्यामंत्र देकर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा। ये दोनों गुरू के द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से भी नेमिनाथ तीर्थकर की सिद्धभूमि पर जाकर नियमपूर्वक अपनी अपनी विद्या की साधना करने लगे । जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई तब वहां पर उनके सामने दो देवियां आई। उनमें से एक देवी के एक ही आँख थी और दूसरी देवी के दाँत बड़े-बड़े थे।

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मुनियों ने जब सामने देवियों को देखा तो जान लिया कि मंत्रों में कोई त्रुटि है, क्योंकि देव विकृतांग नहीं होते हैं। तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया। जिसके सामने एक आँख वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण कम पाया तथा जिसके सामने लम्बे दाँतों वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया। दोनों ने अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध कर पुनः अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप देवियां अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुई तथा बोली कि हे नाथ! आज्ञा दीजिए! हम आपका क्या कार्य करें? दोनों मुनियों ने कहा- देवियों! हमारा कुछ भी कर्य नहीं है। हमने तेा केवल गुरूदेव की आज्ञा से ही विद्यामंत्र की आराधना की है। ये सुनकर वे देवियां अपने स्थान को चली गई।

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मुनियों की इसी कुशलता से गुरू ने जान लिया कि सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए वे योग्य पात्र है। आचार्य श्री ने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। वह अध्ययन अषाढ शुक्ल एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। इस दिन देवों ने दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दांतों की विषमता दूर क देवों ने उनके दांत कुंदपुष्प के समान सुंदर किया इसलिए आचार्यश्री ने उनका ‘पुष्पदन्त’ यह नामांकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूर्यनाद जयघोष, गंधमाला, धूप आदि से पूजा की इसलिए आचार्यश्री ने उन्हें ‘भूतबलि’ नाम से घोषित किया।

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अनन्तर श्री धरसेनाचार्य ने विचार किया कि मेरी मृत्यु का समय निकट है। इन दोनों को संक्लेश न हो, यह सोचकर वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे ही दिन वहां से कुरीश्वर देश की ओर विहार करा दिया। यद्यपि वे दोनों ही साधु गुरू के चरण सान्निध्य में कुछ अधिक समय तक रहना चाहते थे तथापि ‘‘गुरू के वचन अनुल्लंघनीय हैं,’’ ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहाँ से चल दिए और अकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया। वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवास देश को चले गए और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश को चले गए।

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पुष्पदन्त मुनिराज अपने भानजे को दीक्षा देकर उन्हें पढाने के लिए महाकर्म प्रकृति प्रभृत का छह खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे अतः उन्होंने बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढाया और जिपालित को यह ग्रन्थ देकर भूतबलि जी के पास भेज दिया। इस रचना को और पुष्पदन्त मुनि के षटखण्डागम रचना के अभिप्राय को जानकर एवं पुष्पदंत जी की आयु भी अल्प है ऐसा जिनपालित से समझकर श्री भूतबलि आचार्य ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि करके आगे के ग्रन्थ की रचना की। 

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इस तरह पूर्व के सूत्रों सहित छह हजार श्लोक प्रमाण में इन्होंने पांच खण्ड बनाये। 
छह खण्डों के नाम हैं-
१ जीवस्थान
२ क्षुद्रक बंध
३ बंधस्वामित्व
४ वेदना खण्ड
५वर्गणा खण्ड 
६ महाबंध
भूतबलि आचार्य ने इन षटखण्डागम सूत्रों को पुस्तक बद्ध किया और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित कृतिकर्मपूर्वक महापूजा की।

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इसीलिए इसी दिन से इस पंचमी का श्रुतपंचमी नाम प्रसिद्ध हो गया। तब से लेकर लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुत की पूजा करते आ रहे हैं। 

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पुनः भूतबलि ने जिनपालित को षट्खण्डागम ग्रन्थ देकर पुष्पदन्त मुनि के पास भेजा। उन्होंने अपने चिन्तित कार्य को पूरा हुआ देखकर महान हर्ष किया और श्रुत के अनुराग से चातुर्वर्ण संघ के मध्य महापूजा की।

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आचार्य पुष्पदंत ने समस्त सत् प्ररूपणा के बीस अधिकार रचे, इसके पश्चात समस्त ग्रन्थ आचार्य भूतबलि द्वारा रचा गया

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अपर्युक्त विवरण से ज्ञान होता है कि आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षटखण्डागम ग्रन्थ की रचना कर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ के साथ उसकी पूजा की थी, जिससे श्रुतपंचमी तिथि दिगम्बर जैनों में प्रख्यात हो गई। ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी की आराधना और प्रभावना का संदेश देता है। इस दिन षट्खण्डागम, धवला, महाधवलादि ग्रन्थें को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिए। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति और शांतिभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिए। विशेष विधान करना चाहिए। शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये। जिनवाणी की प्रभावना हेतु ग्रंथों का शक्ति अनुसार दान करें। 

*🌺सबसे महत्त्वपूर्ण🌺* 
जिनवाणी का स्वाध्याय का नियम करें क्योंकि यही उन पूर्वाचार्यों के प्रति सच्ची विनयांजलि होगी जिन्होंने अपनी साधना और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को जिनवाणी को आप तक पहुचाने में समर्पित कर दिए। स्वयं स्वाध्याय करें और दूसरों को भी स्वाध्याय करने की प्रेरणा दीजिए। ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता उसके संस्कार अगले जन्म में अवश्य जाते हैं। 

*मूलाचार गाथा संख्या २८६ में लिखा है की*

विनय से पढ़ा गया शास्त्र यद्यपि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी वह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवल ज्ञान को प्राप्त करा देता है 📖

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