सहज चिंतन प्रभु दर पर...
अद्भुत बात यहाँ चलती है,
मुक्ति पुरी का द्वार है।
भावी सिद्ध यहां पर बैठे
करते तत्व विचार हैं।
अनंत भवों के पुण्य को,
जब मैंने प्रभु खपाया है।
तब जाकर के यह चिंतामणि,
नर भव मैंने पाया है।
बचपन में तो ज्ञान नहीं था,
लगा रहा मैं खेलों में।
यौवन में आया तो खो गया,
विषयों के मेलों में।
कहते हैं सब वृद्ध अवस्था,
में धर्म ध्यान करो तुम।
शक्ति रहे न,आयु बचे न,
ध्यान रहे परिजन में गुम।
अरे प्रभु तब क्या कल्याण,
करूंगा मैं निज आतम का।
अभी समय है योवन का,
पुरूषार्थ करूं परमातम का।
ज्यों धन आता क्यों विषयों में,
उलझा जाता मेरा मन।
माटी और कागज में खोया,
मैंने अपना मानुष तन।
अरे प्रभु अब चेत रहा हूँ,
अब ना मुझे सोना है कभी।
निज धन बिन मैं बहुत रुला हूँ,
अब ना मुझे रोना है कभी।
जीवन मेरा आयु कर्म,
धर्म पुण्य पाप आधीन है।
क्षमा करो फिर सब जीवों की,
सब स्वतंत्र स्वाधीन है।
मान करूं कि यह धन-संपत्ति,
मैंने यहां कमाया है।
जरा विचार इस भाव से मैंने,
नरकों के कोड़े खाया है।
विषयों की इस चकाचौंध में,
होये पदार्थ इष्ट भाषित।
नहीं इष्ट व अनिष्ट जगत में,
व्यर्थ कल्पना पर आश्रित।
मैं अखंड अविनाशी "ज्ञाता",
अब ना पर में भ्रमाऊँगा।
मेरे अपने सिद्धशिला में,
अब मुक्तिपुरी ही जाऊँगा।
प्रथम देखूँ निज आत्मा,
दूजा देखूं प्रभु तोय।
अन्य कुछ देखूँ नहीं,
नहीं तो मन ये मैला होये।।
🚩जैनम जयतु शासनम् 🚩
🚩🙏 वंदे श्री वीरशासनम् 🙏🚩
🙏🌷 जय महावीर 🌷🙏
🙏 जय जिनेंद्र 🙏
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